Sunday 12 May 2013

माँ - अब नहीं मिलेगी






मात् दिवस आज मना लो 
फिर पता नहीं मौका मिलेगा न मिलेगा 





 माँ 
 अनमोल बड़ा ही रिश्ता ये अब बस किताबों में मिलेगा 
बन इतिहास, किन्ही पन्नो पर सजेगा .....
बस कुछ ही समय में ये शब्द और रिश्ता अद्रश्य हो जायेगा 
अब इश्वर भी कभी माँ का रूप लेकर नहीं आएगा 
देख यहाँ दुर्दशा बेटियों की वो भी दहेल  जायेगा 

जहाँ रोज़ तिरसकृत माँ होती है 
जहाँ मार दिया जाता है ,एक माँ कोख में जन्म से पहले ही 

जहाँ रोज़ उनके बचपन से खिलवाड़ होता है 
एक नन्ही सी जान को भी, वेहेशी शिकार बनाते हैं 
रोंद कर फूल से बचपन को, कर अट्ठाहस गगन गुंजाते हैं
जहाँ उसकी ज़िन्दगी शुरू होने से पहले ही ख़तम हो जाती है 
जहाँ भेदती निगाहों के बीच जीने की वो आदि हो जाती  है

जहाँ खुल कर मर्ज़ी से जीने की भी उसको सजा मिलती है 
घात लगाये बैठे भेड़िये नोचते हैं बेदर्दी से जिस्म को उसके 
और फिर कहीं सडको पर वो नग्न, लहुलुहान पड़ी मिलती है,
तिस पर भी ये समाज जिम्मेदार दुर्दशा का स्वयं उसे ठेहेराता है 
सौ इलज़ाम लगा उसे ही ,चरित्र हीन कहा जाता है

जहाँ बेटी को बंदिशों में डरकर रहना सिखाया जाता है 
पर बेटो को कभी स्त्री सम्मान और अहिंसा का पाठ नहीं पढ़ाया जाता है 

जहाँ पग -पग पर वो अनचाहे स्पर्श झेलती है 
जहाँ रोज़ दहेज़ की पीड़ा में आग से खेलती है 
जहाँ उसको इंसान नहीं सामान समझा  जाता है 
उसके विरोध को अपना अपमान समझा जाता है 
और चढा दी जाती है बलि उसकी झूठे अहम की तृप्ति के लिए 
जहाँ ज़िन्दगी खिलने से पहले ही मुरझा जाती है

वहां इश्वर खुद भी आने से डरेगा ,
फिर क्यूँ भला माँ का सृजन वह करेगा 

आज जो बेटी है ,वही तो  कल माँ कहलाएगी 
पर बेटियां ही नहीं रहेंगी तो माँ कहाँ से आएगी 

जब  रोज़ युहीं बेटियां बलि चढ़ती  रहेंगी
तो माएँ भी मरती रहेंगी ....
                                                                                                  

                                                                                                - सोमाली 








Friday 12 April 2013

छिपी सी तड़प -"दर्द प्यार का "












फिर हँस दी मैं और दिल रोया,
जब कहा किसी नेआज की तुम क्या जानो दर्द प्यार का....
बरसने को बेसब्र आँखें झुका कर चली आई मैं 
दिल में फिर तेरा ख़याल लिए ....
फिर जग उठी वो कसक 
जो  शिद्दत से दबा रखी थी दिल के किसी कोने में 
फिर उठ हुआ  खड़ा मेरा कल, न जाने कितने सवाल लिए..... 

क्या कहू तुझे अपना कल या आज ?
ये भी तो इक सवाल ही है ....
है तो कल तू, पर शामिल उतना ही 
मेरे आज में भी है.... 
या कहू की आज और कल के बीच कोई लकीर ही नहीं..
बस कुछ बदला है, तो रिश्ते का रूप
वो भी सिर्फ मेरे लिए 
तेरे लिए तो कुछ बदला ही नहीं....

आज भी याद है मुझे,तेरी कही हर बात
वो अपने दुःख- दर्द बाँटना...
कभी यूहीं कुछ बातों पर हँसना 
यूहीं बातो -बातों में बीती हर रात...
आज भी जेहन गहरे बसी हैं , तेरी सारी यादें...
पर तुझे शायद ही याद हो ,मेरी कोई  बात ....

वो तेरा इजहारे प्यार..... 
और फिर प्यार से खुद तेरा इनकार ..  

इस सच के बाद शायद मैं ही मैं नहीं रही थी....
पर फिर भी याद है मुझे..
तेरी हर वो दलील जो तूने  दी थी....
ये साबित करने को,की साथ छोड़ रहे हो
 मगर फिर भी हमेशा साथ रहोगे...... 

जब टूट चुकी थी मैं ,फिर तुमने कहा था 
चंद महीने ही तो थे,क्या फर्क पड़ता है....
पर वो तुम्हारे  लिए शायद चंद महीने थे
लेकिन मेरे लिए पूरा जीवन......
काश तुम समझ पाते....

पर तुम्हे ही क्यूँ दोष दूँ सारा,
दोषी में भी तो कम नहीं थी....
में ही थी जो थोड़े वक़्त में तुम्हारे प्यार में आकंठ डूब गयी थी...
प्रेम मैंने तुझसे अटूट किया था,ये दोष तेरा न था 
इसीलिए दे आजादी तुझे,सोचा था भूल जाउंगी  ....
 
पर आज भी तुम शमिल हो मेरी जिंदगी में
मगर कुछ इस तरह की 
अब विश्वास नहीं होता तेरी किसी बात पर 
नफरत करना चाहती हूँ,पर कर नहीं पाती...
रिश्ता आज भी अनाम सा है तेरे- मेरे बीच  
और में भी न जाने क्यूँ ये रिश्ता निभाए चली जा रही हूँ 

क्या बताऊँ किसी को .....
जब में खुद नहीं जानती 
मैंने क्या खोया और क्या पाया 
न जाने कितनी बार हिसाब लगाने की कोशिश की 
पर जवाब कुछ न आया.......

बस दबा कर दिल के अन्दर गम को...
हँस कर जीना सीख लिया...
अब कोई कहता भी है की 
तुम क्या जानो दर्द प्यार का .....
दिल के अन्दर फिर कुछ टूट जाता है.....
फिर कसक सी उठती है....
और में हँस कर कहती हूँ 
सच कहते हो मैंने कभी प्यार जो नहीं किया....   
 
                         -सोमाली   


 
















Tuesday 6 November 2012

……हर काली रात के बाद होता एक सवेरा सुनहेरा देखा है






रुकी हुई हैं  कुछ बाते, लबो तक आते आते 
की बातों का असर दिलो पे होते कुछ गहरा देखा है ,

कैद हैं कुछ ख्वाब जागती रात की इस वीराने में 
की सपनो पर हमने अश्को का पहरा देखा है 

बहुत हलचल है इसकी गहराई में 
ऊपर से जिस  पानी को तुमने शांत ठहरा देखा है , 

नाज था कभी जिन्हें अपनी उड़ानों पर 
आज भटकते उन्हें हमने सहरा-सहरा देखा है,

वार दिए अपने सपने और खुशियाँ जिनकी परवरिश में 
आज उन्ही संतानों को अपने माँ-बाप के बोझ से होते दोहरा देखा है,

नकारे किसको और किस पर यकीन करे 
की हर रोज़ हमने नियति का एक नया चेहरा देखा है,

छंट जाएगी हर धुंध बस थोडा धीरज रख दोस्त 
की हर काली रात के बाद  होता एक सवेरा सुनहेरा  देखा है 

-सोमाली 

  


  



Saturday 28 July 2012

मजबूर गुनेहगार





मगरूर थी या मजबूर वो ,कौन पूछने जायेगा उससे 
सब बन बैठे हैं मालिक उसके,वो बस एक कांच की गुडिया हैं,

 समझा  नहीं  कभी  इंसान  उसे ,
खेलते रहे उससे जैसे ,बस  वो मनोरंजन का एक जरिया है

होती रूह आहत उसकी ,हर रात लुटती आबरू के साथ 
पड़ जाती अनगिनत सिलवटे दिल पर भी,उस सिकुड़ते  चादर के साथ  

लहू के अश्क पीकर ,युहीं घुट घुट कर जीती है 
लिए झूठी मुस्कान लबो पर,तनहाइयों के अंधेरों में जख्मो को सींती  है ,


तरसती है, दो सच्चे प्यार के बोल सुनने को...
हर रात व्यवसाय के तराजू में तुलती है 

चुनती  है रोज़ उन मसले हुए ख्वाबो को, बिखरे  कांच के टुकडो में से ,
जो बिखर जाते हैं  बिस्तर पर टूट कर  चूड़ियों के टुकडो के साथ ,


बस पड़ी रहती है जडवत सी,पत्थर बनकर,
किसी की हवस  मिटाते बेजान से  एक जिस्म की तरेह

फिर अपने तार- तार हुए दामान को समेटकर  आहत ह्रदय से हर बार  
 हो जाती तैयार ,लिए झूठी मुस्कान `बिखरने को फिर एक बार 

बिखरते -समेटते इन लम्हों में  ही उम्र सारी बंध जाती है 
बेमन से किये समर्पण से ,हर रात बे-इन्तेहाँ दर्द पाती है 

हार कर अपनी नियति से,हालात से समझोता कर जाती  है 
बेगैरत सी ज़िन्दगी में ,बस जीने की रस्म निभाती है 


टूटी है जो पहले से ही ,दुनिया उसे ओर रुलाती है,
बींध कर शब्द-वाणो से ,रूह उसकी छलनी  कर जाती है  

बने रहते हैं  शरीफ ,हमेशा ही  सत्चरित्र 
जो आकर इन बदनाम गलियों में भी, होते नही बदनाम


और वो मजबूर  यहाँ  त्रियाचरित्र कहलाती है 
सभ्य समाज के लिए बदनुमा दाग बन जाती है

बस पूछती है सवाल दुनिया उससे ,और उसके गुनाहों का हिसाब दिखाती है 
कोई नहीं पूछता  उससे की कैसे घायल ह्रदय में, ये जख्म गहरे  छुपाती है


 बेगुनाह होकर भी, वो क्यूँ गुनाहों का बोझ उठाती है 
आखिर  क्यों कोई नहीं  जानना चाहता की कैसे एक मासूम ,तवायफ पेशावर बन जाती है....  

 ........सोमाली  



Wednesday 16 May 2012



...... कुछ अनकहे से जज्बात.


 1. बस लफ्जों की तलाश है मुझको,
    वरना चेहरा जज्बातों का तो कबका दिल में बना लिया
    काश मिल जाये कुछ अलफ़ाज़ उसमे से,
    बयां करने को दिल-- हालात मेरे,
    पुलिंदा जो शब्दों का दिल में बना लिया.....


 
2. भर देता है जो जख्म  वक़्त,क्यूँ फिर खुद ही वो जख्म  कुरेदता है
   क्यूँ पुरानी यादों के धागों को उधेड़ता है,
   गर जीता इक दिन भी, वक़्त ये ज़िन्दगी हमारी
   तो जानता की कैसे इंसान, हर लम्हे में अपनी मौत भी सहेजता है ..

 
3. टूटे सपनो के शीशे जब चुभने लगे आँखों में 
    
तो दर्द आंसुओं में ढल गया ,
    
एक कतरा , बन चिंगारी यूँ  गिरा ,
    
मेरे अरमानो के आशियाने पर की ,
    
तिनका-तिनका मेरे आशियाने का जल गया ........... .

 .

4. अधर तो कांपे थे पर, अलफ़ाज़ बहार सके,
      दिल की बात हम जुबां पर ला सके ,
      जख्म कितने गहरे हैं ,ये तुमको दिखा सके,
      बेबसी का आलम हमारी ये देखिये
      की बेंतेहान दर्द में भी हम आंसू बहा सके
              
                        -सोमाली